
एच-1बी वीज़ा क्या है और इसकी अहमियत क्यों है

अमेरिका को आज भी दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और तकनीक का गढ़ माना जाता है। यहां नौकरी करने का सपना लाखों लोग देखते हैं। इसी वजह से हर साल एच-1बी वीज़ा की चर्चा होती है। ये वीज़ा खास तौर पर उन लोगों के लिए है जिनके पास किसी खास क्षेत्र का ज्ञान या स्किल है, जैसे कंप्यूटर प्रोग्रामिंग, इंजीनियरिंग, साइंस, टेक्नोलॉजी या फिर रिसर्च का काम। इस वीज़ा की खासियत ये है कि इसके ज़रिए कोई विदेशी नागरिक अमेरिका जाकर वहां काम कर सकता है और वहीं रह भी सकता है।
भारत से हर साल सबसे ज़्यादा लोग इस वीज़ा के लिए आवेदन करते हैं क्योंकि भारतीय युवा आईटी और टेक्नोलॉजी सेक्टर में सबसे आगे माने जाते हैं। लगभग हर दूसरी बड़ी अमेरिकी कंपनी में भारतीय कर्मचारी ज़रूर काम कर रहे हैं। इसी वजह से भारत को एच-1बी वीज़ा का सबसे बड़ा लाभार्थी माना जाता है। लेकिन हाल ही में जो रिपोर्ट सामने आई है, उसने ये दिखा दिया कि भारतीय कर्मचारियों को कितना फर्क झेलना पड़ता है।
नई रिपोर्ट से क्या पता चला

रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय कंपनियां जब अपने कर्मचारियों को एच-1बी वीज़ा पर अमेरिका भेजती हैं तो उन्हें अमेरिकी कंपनियों के मुकाबले काफी कम वेतन देती हैं। जबकि अमेरिकी कंपनियां अगर किसी विदेशी को नियुक्त करती हैं तो उसका वेतन काफी अच्छा होता है ये फर्क केवल थोड़ा सा नहीं बल्कि कई हज़ार डॉलर तक हो सकता है। उदाहरण के तौर पर, एक ही काम करने वाले कर्मचारी को अगर अमेरिकी कंपनी नौकरी दे रही है तो उसे सालाना 1 लाख डॉलर तक मिल सकता है, जबकि वही काम अगर भारतीय कंपनी के ज़रिए किया जा रहा है तो सैलरी 70 से 80 हज़ार डॉलर तक सीमित रह सकती है।
भारतीय कंपनियां कम वेतन क्यों देती हैं

ये सवाल सबसे ज़्यादा उठ रहा है कि आखिर भारतीय कंपनियां ऐसा क्यों करती हैं। इसके पीछे कई वजहें हैं।
पहली वजह है कि भारतीय कंपनियां जैसे TCS, Infosys, Wipro, HCL जैसी दिग्गज कंपनियां अमेरिका में बड़ी संख्या में कर्मचारी भेजती हैं। उनका काम ज्यादातर क्लाइंट प्रोजेक्ट्स पर आधारित होता है। मतलब ये कंपनियां अमेरिकी कंपनियों के लिए आउटसोर्सिंग का काम करती हैं। ऐसे में उनकी कोशिश होती है कि लागत कम रखी जाए ताकि प्रोजेक्ट सस्ते में पूरा हो सके और उन्हें कॉन्ट्रैक्ट जीतने में आसानी हो।
दूसरी वजह ये है कि भारतीय कंपनियों का मॉडल ही मास हायरिंग पर आधारित है। यानी वे एक साथ सैकड़ों-हज़ारों लोगों को अमेरिका भेजती हैं। ऐसे में हर किसी को बहुत ऊँची सैलरी देना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। इसके उलट अमेरिकी कंपनियां चुनिंदा टैलेंट को रखती हैं और उन्हें ऊँचा वेतन देती हैं ताकि वे लंबे समय तक कंपनी से जुड़े रहें।
अमेरिकी कंपनियां ज्यादा वेतन क्यों देती हैं

अमेरिकी कंपनियों का नजरिया थोड़ा अलग होता है। वे जब किसी विदेशी कर्मचारी को एच-1बी वीज़ा पर रखती हैं तो उसे अपनी टीम का अहम हिस्सा बनाती हैं। इन कंपनियों का फोकस रिसर्च, इनोवेशन और नई टेक्नोलॉजी पर होता है, जहां अच्छे टैलेंट के बिना काम चल ही नहीं सकता। इसलिए वेतन भी उसी हिसाब से ज़्यादा रखा जाता है इसके अलावा अमेरिकी सरकार ने भी कुछ नियम बनाए हुए हैं कि विदेशी कर्मचारियों को कम से कम न्यूनतम वेतन ज़रूर मिले ताकि लोकल कर्मचारियों के साथ अन्याय न हो। अमेरिकी मज़दूर कानून यह सुनिश्चित करते हैं कि विदेशी और लोकल दोनों को बराबरी का मौका मिले। यही वजह है कि अमेरिकी कंपनियां अक्सर ऊँचा वेतन देकर टैलेंट को अपने साथ जोड़ती हैं।
भारतीय कर्मचारियों पर असर

अब सवाल ये उठता है कि इसका असर भारतीय कर्मचारियों पर कैसा पड़ता है। अमेरिका जैसे देश में रहना बेहद महंगा है। मकान का किराया, खाना, गाड़ी और रोज़मर्रा का खर्चा काफी ज़्यादा होता है। अगर किसी को कम वेतन मिलता है तो उसकी आमदनी का बड़ा हिस्सा सिर्फ ज़रूरी खर्चों में चला जाता है। बचत करना या परिवार को अच्छे स्तर पर संभालना मुश्किल हो जाता है हालांकि, बहुत से भारतीय कर्मचारी इसे एक मौके के रूप में भी देखते हैं। उनका मानना है कि भले ही वेतन अमेरिकी कंपनियों जितना न हो, लेकिन भारत में मिलने वाले पैकेज से कहीं ज़्यादा है। साथ ही, अमेरिका में काम करने का अनुभव उन्हें आगे बेहतर अवसर दिला सकता है। H1-B Visa Jobs : क्यों भारतीय कंपनियां अमेरिकी कंपनियों से कम वेतन देती हैं
भारतीय कंपनियों के फायदे

जहां एक तरफ कर्मचारियों को कम वेतन मिलता है, वहीं दूसरी तरफ भारतीय कंपनियों को इसका सीधा फायदा होता है। वे कम लागत पर अमेरिकी क्लाइंट्स को सर्विस दे पाती हैं। यही वजह है कि भारतीय आईटी कंपनियों का दबदबा दुनिया भर में है। अमेरिकी कंपनियां जानती हैं कि भारत से काम करवाना सस्ता और भरोसेमंद है। इसी वजह से भारत की आईटी इंडस्ट्री हर साल अरबों डॉलर कमाती है।
भविष्य की चुनौती
लेकिन अब हालात धीरे-धीरे बदल रहे हैं। जैसे-जैसे ये फर्क लोगों के सामने आ रहा है, वैसे-वैसे भारतीय कंपनियों पर दबाव बढ़ रहा है। अगर वेतन में इतना बड़ा फर्क बना रहा तो टैलेंट सीधे अमेरिकी कंपनियों में नौकरी ढूंढने की कोशिश करेगा। खासकर वे लोग जो अमेरिका में लंबे समय तक रहना और करियर बनाना चाहते हैं, वे भारतीय कंपनियों से ज्यादा अमेरिकी कंपनियों को प्राथमिकता देंगे इसके अलावा अमेरिकी सरकार भी इस पर नज़र बनाए हुए है। हो सकता है आने वाले समय में नए नियम बनाए जाएं जिससे विदेशी कर्मचारियों को कम वेतन देना मुश्किल हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो भारतीय कंपनियों को अपनी नीति बदलनी ही पड़ेगी।
क्या भारतीय कंपनियां बदलाव करेंगी

भारतीय कंपनियां जानती हैं कि लंबे समय तक इस मॉडल को चलाना आसान नहीं होगा। टैलेंट को बनाए रखने के लिए उन्हें धीरे-धीरे वेतन बढ़ाना ही होगा। साथ ही उन्हें यह भी देखना होगा कि कर्मचारी सिर्फ पैसे की वजह से ही कंपनी न छोड़ें, बल्कि उन्हें काम करने का बेहतर माहौल भी मिले कुछ भारतीय कंपनियां पहले से ही इस दिशा में कदम बढ़ा रही हैं। वे कर्मचारियों को अमेरिका भेजते समय सैलरी पैकेज और सुविधाओं पर ध्यान देने लगी हैं। हालांकि, अभी भी अधिकांश कंपनियां लागत बचाने पर ज्यादा जोर देती हैं।
नतीजा क्या निकलता है
कुल मिलाकर, एच-1बी वीज़ा नौकरियों में भारतीय और अमेरिकी कंपनियों के बीच वेतन का फर्क साफ दिखाई देता है। भारतीय कंपनियां ज़्यादा लोगों को कम वेतन पर काम पर रखती हैं, जबकि अमेरिकी कंपनियां चुनिंदा टैलेंट को ऊँची सैलरी देती हैं। इसका असर सीधे भारतीय कर्मचारियों की जेब और उनके जीवन स्तर पर पड़ता है।
अगर आने वाले समय में नियम सख्त हुए या कर्मचारी ज्यादा जागरूक हुए तो भारतीय कंपनियों को अपनी सोच बदलनी होगी। नहीं तो सबसे अच्छा टैलेंट अमेरिकी कंपनियों की ओर खिंच जाएगा। अभी के लिए इतना साफ है कि अमेरिका में नौकरी करने का सपना पूरा तो होता है, लेकिन हर किसी के लिए वहां की जिंदगी आसान नहीं होती।